शहादत
राधा को तो मयस्सर था कृष्ण चंद रोज़
कोई ज़िक्र तो करो ज़रा मीरा के प्यार पर
किसी मोड़ पे रुका है यह मुसाफ़िर इस कदर
मानो बुनियाद-ए-तसव्वुर हो किसी दरार पर
लफ़्ज़ों की परत से कहीं ज़्यादा गहरी है ये आँखें
लोगों के दिल नहीं छपते हैं कभी इश्तिहार पर
सरगम-ए-क़ायनात की झलक बेपर्दा जब हुई
अहम का सायबाँ दिखाई दिया हर ख़ुमार पर
अपनी हार की गुंजाइश को जेब में लिए
बेखौफ़ खड़ा था शख़्स वो दिली इज़्हार पर
त'अय्युश के लुफ़्त में मौजूद नहीं है ये ज़िंदगी
जीने का इल्म छिपा है शहादत की कगार पर
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