तसव्वुर-ए-त'अल्लुक़ात

मैं कोई शहंशाह नहीं कि मेरी खिदमत कुनाँ हो
न महफिलों का शौक, न कोई हरम की चाह हो
न तख्त-ए-ताउस हो, न पैबोस अदा हो
न ऐसी फ़ज़ा कोई कि जहाँ इसमत तबाह हो

तग़ाफ़ुल की शक्ल में नियाज़ नहीं चाहिए
गिरफ़्त में रखे जो तुम्हें, वो राज़ नहीं चाहिए
कोई भी शख्स दरमियाँ मोहताज नहीं चाहिए
त'अल्लुक तले हुकूमत का ताज नहीं चाहिए

मयस्सर ता-उम्र ये ज़मान ही देने को है
एहतिराम लिए पेश ये गिरेबान ही देने को है
त'अय्युश में बेख़ौफ़ इक उड़ान ही देने को है
महलों के पिंजरे नहीं, खुला आसमान ही देने को है

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