स्वराज

आदर्श समाज की लिए कल्पना 
क्रान्ति हुई जब सड़कों पर 
तब लहु बहाया लाखों का 
हो चाहे स्टालिन या हिटलर ।

इक लम्बी रेखा के दो चरम 
एक दक्षिणपंथ एक वामपंथ 
और मध्य तमाशा देख रहा 
लाखों लोगों का भीड़तंत्र ।  

यह भीड़ हताशा से भरी 
खुद को निष्पक्ष-तटस्थ बताती है 
चरमों पर छोड़ जिम्मेदारी का बोझ 
खुदको परतंत्र पीड़ित पाती है ।

गुलामी की इस धूल हटाने 
फिर याद करो किसी ऑंधी को 
सड़कों-नोटों में सर्वप्रसिद्ध 
उस भूले बिसरे गांधी को ।

प्रत्येक पुरुष जब अपने हाथों 
लेता अपना कल-और-आज 
अपने मूल्यों और नैतिकता पर 
होता तब उसको स्वयं नाज़ ।

फिर इस रेखा के परे खड़ा 
दिखता है कोई व्यक्ति आज
दृष्टि के सम्मुख स्वर्ग लिए
खुदके भीतर संपूर्ण स्वराज ।






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