कामयाब कश्मकश

सिर्फ ज़बाँ से ही बस बात नहीं होती है
ख़फा होने की कोई हयात नहीं होती है 
ता-उम्र देखा है अनदेखा करना 
नख़रा कोई नया दिखाया जाए 

ज़रा सी रुसवाई से क्या ही और डरेंगे 
मौत बेशक आनी है, आज नहीं मरेंगे 
फिर भी मनमानी के तरकश में से 
तीर कोई नया चलाया जाए

हैं ये गुल जो, कैसी भी फिज़्ज़ा हो, खिलेंगे
मैदान-ए-मासूमियत में, हम शायद कहीं मिलेंगे
शहरों की हवा नहीं है वाक़िफ इससे 
समा कोई नया सजाया जाए 






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