तब्दीली-ए-सूरत

क़ामयाबी फ़क्त इक लम्हा है, गर्दिशों ने है संवारा मुझे
मशक्कतें जो लगीं ज़ाया, अब हाथ में लिए मुकद्दर हूँ

मयस्सर नहीं था साहिल, मिला है लहरों में किनारा मुझे
आया था बनकर एक कतरा, इस मर्तबा समंदर हूँ

ता-उम्र देखने मिला है, मैदान-ए-जंग का नज़ारा मुझे
मामूली-सा शहसवार था, हाल ये है कि सिकंदर हूँ

ज़रा दीदार कर लें अपना, मिला है रूह का इशारा मुझे
कभी खुदकी भी खबर न थी, आज साथ लिए लश्कर हूँ

गुलामी जो समझूँ इश्क को, हरगिज़ नहीं गवारा मुझे
जहाँ आगोश बेनियाज़ है, जन्नत पाया दोज़ख़ में जाकर हूँ 




Comments

Popular Posts