पतवार की कलम से

जब किसी मझधार से पतवार का होता समर 
तूफाँ में कश्ती डोलती, नाविक तभी होता अमर ।
लहरों में आँखें डालकर, जो पार उनके देख ले 
साहिल भी हैरानी में फिर, है देखता उसका सफर ।।

आबो-हवा कुछ इस कदर, तुम आए शहर के द्वार पर 
अहं के युद्ध में डूबा शहर, सब कुछ टिका बाज़ार पर ।
सबको खुद ही में तारता, फिर याद आया कुछ तुम्हें
तुम गर्व से विजयी रहे, हर युद्ध अहं का हार कर ।।

फिर एक दरिया वह भी है, जिसकी तुम्हें बस है खबर
पतवार तुम, नैया भी तुम, नाविक भी तुम चारों पहर ।
सतहों में जिसके तुम बहे, गहराई में ठहरे रहे
जीवन के हर तूफान में, समंदर हो जाना ही है हुनर ।।

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