अज़िय्यत और ऐतबार
मशालों में शमा न हो, अंधेरी हर डगर लगे
शफ़क़ में सूर्य बन जलेंगे, पर जलेंगे ज़रूर
उजाड़ कर गुलज़ार, इमारतों का घर शहर लगे
किसी आँगन में फिर खिलेंगे, पर खिलेंगे ज़रूर
दश्त-ए-तन्हाई में जब, अज़िय्यत से भरा सफ़र लगे
साया बन मंज़िल तक चलेंगे, पर चलेंगे ज़रूर
तमाम जश्नों के बावजूद, चश्म-ए-नम जो तर लगे
आँखों में नूर बन मिलेंगे, पर मिलेंगे ज़रूर
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