घरवापसी

हजारों की निरंतर दौड़ में ,
सबसे आगे होने की होड़ में ,
खुद को यकायक थाम लूं 
कहता कोई जज़्बात है ।

               भरे इस शोर में मैं मौन हूं ,
               कि खुद को जान लूं मैं कौन हूं ,
               यथा आवाज़ आएगी जो फिर 
               वह मुझसे मेरी मुलाकात है ।

खुली आँखें तो ख्वाब खो गया ,
जरा सा क़तरा तट को धो गया ,
ज़हन में वह नजारा है कि जैसे
समंदर से भरी परात है ।

              तारों भरे रोमांच की इस रात में ,
              असीम इस मुकम्मल क़ायनात में ,
              हर इक ज़र्रा है मुझसे यूं जुड़ा 
              मानो मेरी ही बारात है ।


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